ज्ञानोपदेश (ज्ञान प्राप्ति का उपदेश) - प्रकरण 1
श्लोक 1
जनक उवाच,
कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति ।
वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद् ब्रूहि मम प्रभो ॥
भावार्थ:राजा जनक ने पूछा: “ज्ञान कैसे प्राप्त होता है? मुक्ति कैसे संभव है? वैराग्य किस प्रकार प्राप्त होता है?
हे प्रभु! कृपया मुझे यह सब बताइए।”
व्याख्या: राजा जनक एक ज्ञानी और धर्मपरायण राजा थे, लेकिन वे अभी भी अंतिम सत्य की खोज में थे। उन्होंने महर्षि अष्टावक्र से ये तीन गूढ़ प्रश्न पूछे:
ज्ञान कैसे प्राप्त होता है? – अर्थात् सच्चा आत्म-ज्ञान कैसे प्राप्त किया जाए?
मुक्ति कैसे संभव है? – अर्थात् जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति कैसे मिले?
वैराग्य किस प्रकार प्राप्त होता है? – अर्थात् संसार के प्रति अनासक्ति कैसे आए?
ये तीनों प्रश्न आत्म-साक्षात्कार के मूल हैं। जनक केवल बौद्धिक ज्ञान नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा आत्म-ज्ञान की प्राप्ति चाहते हैं। इसलिए वे अष्टावक्र से मार्गदर्शन मांगते हैं।
श्लोक 2
अष्टावक्र उवाच,
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात् विषयान्विषवत्त्यज।
क्षमार्जवदयातोष सत्यं पीयूषवद्भज॥
भावार्थ:हे तात! यदि तुम मुक्ति चाहते हो, तो विषयों (इंद्रिय सुखों) को विष के समान त्याग दो और क्षमा, सरलता, दया, संतोष और सत्य को अमृत के समान अपनाओ
व्याख्या: यह श्लोक आत्म-साक्षात्कार की दिशा में पहला कदम सिखाता है।
विषयों का त्याग: सांसारिक सुख, भोग और इच्छाएँ अंततः दुखदायी होती हैं। अष्टावक्र उन्हें विष के समान बताते हैं, क्योंकि ये व्यक्ति को मोह और बंधन में डालते हैं।
गुणों को अपनाना: क्षमा (Forgiveness) – दूसरों को क्षमा करने से मन हल्का होता है।
साधुता (सरलता – Straightforwardness) – छल-कपट छोड़कर सच्चाई से जीवन जीना।
दयालुता (Compassion) – सभी प्राणियों के प्रति प्रेम और करुणा रखना।
संतोष (Contentment) – वर्तमान में संतुष्ट रहना और अधिक की लालसा न करना।
सत्य (Truth) – सत्य का पालन करना, क्योंकि यही आत्मज्ञान का मार्ग है।
श्लोक 3
न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुर्यौर्न वा भवान् |
एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये ||
भावार्थ:तुम न पृथ्वी हो, न जल, न अग्नि, न वायु और न ही आकाश। इन सभी के साक्षीस्वरूप अपने चिद्रूप आत्मा को जानो, और मुक्त हो जाओ।
व्याख्या: इस श्लोक में अष्टावक्र आत्मा की वास्तविकता को स्पष्ट कर रहे हैं और व्यक्ति को उसके भौतिक अस्तित्व से परे देखने की शिक्षा दे रहे हैं।
भौतिक तत्त्वों से अलग पहचान (Deha Viveka)
शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना हुआ है, लेकिन आत्मा इनसे भिन्न है।
जब तक व्यक्ति स्वयं को शरीर मानता है, तब तक वह बंधनों में रहता है।
साक्षी भाव (Witness Consciousness)
आत्मा इन सभी तत्त्वों की साक्षी है, न कि इनका भाग।
जैसे आकाश किसी चीज़ से प्रभावित नहीं होता, वैसे ही आत्मा भी शरीर, मन और संसार से अछूती रहती है।
चिद्रूप आत्मा (Pure Consciousness)
आत्मा शुद्ध चेतना (चिद्रूप) है, जो शरीर और मन से अलग होती है।
आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है और न ही किसी परिवर्तन से प्रभावित होती है।
मुक्ति का उपाय (Path to Liberation)
जब व्यक्ति यह समझ लेता है कि वह केवल चेतना (Pure Awareness) है, न कि शरीर, तब उसे तुरंत मुक्ति प्राप्त हो जाती है।
मुक्ति किसी क्रिया से नहीं, बल्कि स्वयं को जानने (Self-Realization) से होती है।
श्लोक 4
यदि देहं पृथक्कृत्य चित्ति विश्राम्य तिष्ठसि |
अधुनैव सुखी शान्तः बन्धमुक्तो भविष्यसि ||
भावार्थ: यदि तुम शरीर से स्वयं को अलग करके (अहंभाव छोड़कर) शुद्ध चित्त (चेतना) में विश्राम कर सको, तो अभी इसी क्षण सुखी, शांत और बंधन-मुक्त हो जाओगे।
व्याख्या: इस श्लोक में अष्टावक्र आत्म-साक्षात्कार (Self-Realization) का एक सरल और सीधा मार्ग बताते हैं:
शरीर से अपनी पहचान हटाना (Deha Viveka)
जब तक व्यक्ति शरीर को ही ‘मैं’ मानता है, तब तक वह संसार के सुख-दुख, जन्म-मृत्यु और कर्म के बंधन में रहता है।
यदि वह यह समझ ले कि वह शरीर नहीं, बल्कि शुद्ध चेतना (आत्मा) है, तो वह तुरंत ही मुक्त हो सकता है।
चित्त में विश्राम (Resting in Awareness)
मन और इंद्रियों से परे जाकर शुद्ध चैतन्य (Pure Consciousness) में स्थिर होना ही मुक्ति है।
जब व्यक्ति स्वयं को शरीर, मन और भावनाओं से अलग कर साक्षीभाव में स्थित होता है, तो उसे शाश्वत शांति का अनुभव होता है।
मुक्ति तुरंत संभव है (Liberation is Instantaneous)
आत्म-साक्षात्कार किसी लंबी साधना का परिणाम नहीं है, बल्कि यह अभी और इसी क्षण संभव है।
बस इतना समझ लेना कि “मैं शरीर नहीं, मैं शुद्ध आत्मा हूँ”, यही बंधनों से मुक्ति दिला सकता है।
श्लोक 5
न त्वं विप्रादिको वर्णो नाश्रमी नाक्षगोचरः |
असंगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव ||
भावार्थ: तुम न ब्राह्मण हो, न कोई अन्य वर्ण, न किसी आश्रम से बंधे हो, और न ही तुम इंद्रियों का विषय हो। तुम तो निराकार, असंग (किसी से बंधे नहीं), और इस पूरे विश्व के साक्षी हो। इसे जानकर सुखी हो जाओ।
व्याख्या: इस श्लोक में अष्टावक्र आत्मा की सार्वभौमिक स्वतंत्रता की शिक्षा दे रहे हैं।
तुम वर्ण (जाति) से परे हो: समाज में व्यक्ति को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि वर्णों से पहचाना जाता है।
लेकिन आत्मा इन सामाजिक पहचान से मुक्त है।
तुम किसी आश्रम (जीवन-चरण) से नहीं बंधे: जीवन को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों में बाँटा गया है।
लेकिन आत्मा किसी भी आश्रम या सांसारिक अवस्था से प्रभावित नहीं होती।
तुम इंद्रियों से परे हो: आत्मा न देखने योग्य है, न सुनने, न छूने, न स्वाद लेने और न ही सूंघने योग्य।
आत्मा को कोई इंद्रिय अनुभव नहीं कर सकती क्योंकि वह इंद्रियों का विषय नहीं है।
तुम असंग (बिना बंधन के) और निराकार हो: आत्मा का कोई आकार नहीं, न ही वह किसी चीज़ से जुड़ी है।
वह मुक्त, निराकार और शुद्ध चेतना मात्र है।
तुम विश्व के साक्षी हो: आत्मा न कर्ता है, न भोक्ता। वह बस साक्षी (द्रष्टा) मात्र है।
जैसे सूर्य संसार को प्रकाशित करता है लेकिन उसमें लिप्त नहीं होता, वैसे ही आत्मा सब कुछ देखती है पर किसी चीज़ में बंधती नहीं।