अष्टावक्र गीता: आत्म-ज्ञान और मुक्ति का मार्ग

 

अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदांत का एक अद्वितीय ग्रंथ है, जिसमें आत्म-ज्ञान, मुक्ति और वैराग्य के गूढ़ रहस्यों का उल्लेख किया गया है। यह ग्रंथ राजा जनक और महर्षि अष्टावक्र के संवाद पर आधारित है, जहाँ अष्टावक्र राजा जनक को आत्म-साक्षात्कार का मार्ग बताते हैं। इसमें बताया गया है कि व्यक्ति स्वयं ही शुद्ध, मुक्त और पूर्ण है, लेकिन अज्ञान के कारण वह स्वयं को शरीर और मन से जोड़कर देखता है।

अष्टावक्र गीता संसार की असारता को समझाकर मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरूप की पहचान कराती है और आत्म-स्वरूप में स्थित होने की प्रेरणा देती है। इसकी शिक्षाएँ सरल, स्पष्ट और निर्भीक हैं, जो सीधा सत्य को प्रकट करती हैं। जो भी व्यक्ति आध्यात्मिक मुक्ति की खोज में है, उसके लिए अष्टावक्र गीता एक अद्वितीय मार्गदर्शक है।

स्वरूप बोधन (स्वयं के स्वरूप का ज्ञान)

आत्मसंस्था (आत्मा में स्थिरता)

तत्त्वमस्यादि विज्ञान (महावाक्यों का बोध)

लयसंप्राप्ति (मन का विलय)

प्रकृति विकृति विचार (प्रकृति और विकृति का चिंतन)

शांति सुखप्राप्ति (शांति और सुख की प्राप्ति)

मुक्ति व्यवहार (मुक्त पुरुष का आचरण)

निर्मलता (शुद्धता और निष्कलंकता)

विरक्तलक्षण (वैराग्य के लक्षण)

शांतलक्षण (शांत व्यक्ति के लक्षण)

स्थितप्रज्ञलक्षण (ज्ञानी व्यक्ति के लक्षण)

आसक्तिविनाश (आसक्ति का नाश)

ईश्वरप्रसाद (ईश्वर की कृपा)

ज्ञानसार (ज्ञान का सार)

ब्रह्माभ्यास (ब्रह्म में अभ्यास)

समाधिदर्शन (समाधि की स्थिति)

जीवन्मुक्तलक्षण (जीवन्मुक्त व्यक्ति के लक्षण)

स्वस्थलक्षण (स्व में स्थित व्यक्ति के लक्षण)

तत्त्वसर्वस्व (परम तत्त्व का संपूर्ण ज्ञान)

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